Se Bachi Hui Prithvi Par
Leeladhar Jagoori
इन्तज़ार की जगह
आज के संगीत की सीढियाँ
आकाश में
कल के पत्तों से ढक दी हैं
इनसे होकर उतरना
मैं यहाँ हूँ
सैकड़ों वर्ष पुराने संगीत की
चट्टान पर
ताज़ा खोदी हुई
मिट्टी की गन्ध से भरी
आस-पास मेरी वर्तमान पृथ्वी है
कोख का
सारा कोयला दहकाये हुए ।
कल के लिए
नींद से ढकी दुनिया में
धंसती हुई गोली की आवाज़ सुनकर
फूलदान में पानी डाल रही है लड़की
नींद से ढकी हुई दुनिया में
मोजे उतारकर
नंगे पैरों की चमक देखकर
छाती के बटन
ठीक से लगा रही है लड़की
नींद से ढकी हुई दुनिया में
खिड़की से बना
एक पुल
नदी से मिले हुए जंगल में
उतरता है
जिसे कल के लिए
पत्तों से ढककर छिपा रही है लड़की ।
प्रेमप्रसंग
ज्यों ही उन पुरानी यादगारों से
एक बड़ा-सा पेपरवेट बनाना चाहता हूँ
त्यों ही वह बनकर
दूर एक स्निग्ध मेज पर चला जाता है
जहाँ मेरे और तुम्हारे हाथ
एक अविस्मरणीय मृदुता में
साँपो की तरह गुँथे पड़े हैं
(उन्हें इस भारी पेपरवेट से
दबाना नहीं चाहता)
फिर ज्यों ही
उन पुरानी यादगारों से
एक बहुत बड़ा हथियार बनाना चाहता हूँ
त्यों ही
वह बनकर आकाश में तन जाता है
जहाँ हमारी
पुराने उद्देश्यों में चमकती
--गरदनें हैं
जिनमें अगर आज भी
एक घूँट समय डाल दिया जाय
तो ख़ून
नसों में दौड़ता दिखायी देगा
(मगर चालू अँधेरे को
दो आँखों देने से पहले
उन्हें काटना नहीं चाहता)
फिर भी ज्यों ही उन पुरानी यादगारों से
ज़िन्दगी के बारे में
एक प्रस्ताव बनाना चाहता हूँ
त्यों ही सारे शब्द
वर्णमाला की मूल सदस्यता से
त्यागपत्र देकर
विरोध में उठ खड़े होते हैं
(लेकिन मैं पहले ही झटक में
उनका क्रोध
निलम्बित नहीं करना चाहता)
तब सोचता हूँ
उन पुरानी यादगारों के बीच
जो एक चिनगारी है
उसी से सबके इरादे प्रज्वलित करूँ
बस इतनी ही में
हरे वनखण्डों से
धुआँ उठने लगता है
(इतनी जल्दी हरियाली को
आग और आँसू के सुपुर्द करना
ठीक होगा ?)
सोचते-सोचते
अन्त में कुछ नहीं बना पाता हूँ
न वे पुराने हाथ
न चमकतो हुई ऊष्ण गरदनें
न कोई झलझलाता हुआ प्रस्ताव
न कोई अग्निपुंज
हमारी कई चीज़ों को
ऐतिहासिक कीचड़ के साथ
बहा ले जाती
अथाह काली बाढ़
मेरी पीठ को
लगातार किनारा बनाकर काटती
अब कन्धे और सिर को डूबोना चाहता है
ऐसे मौके पर जो पैरों के नीचे है
इस ज़मीन को चाहता हूँ
कि थोड़ा और ऊपर उठा लूँ
ताकि शिकंजों में फँसी
हमारी गरदनें
हमारे सिर और कन्धे
अपनी उपस्थिति को
आनेवाले दिनों की रोशनी में
प्रसंगवश चमका सकें
और जो भी देखे अपनी यादगारों से
उसे पेपरवेट बनाना पड़े
न कल्पित हथियार
वल्कि विरोध में उठे हुए शब्दों को
वह एक ऐसे वाक्य को दे दे
जो हरी घास पर
भरी बन्दूक की तरह रखा हुआ हो ।
आज के संगीत की सीढियाँ
आकाश में
कल के पत्तों से ढक दी हैं
इनसे होकर उतरना
मैं यहाँ हूँ
सैकड़ों वर्ष पुराने संगीत की
चट्टान पर
ताज़ा खोदी हुई
मिट्टी की गन्ध से भरी
आस-पास मेरी वर्तमान पृथ्वी है
कोख का
सारा कोयला दहकाये हुए ।
कल के लिए
नींद से ढकी दुनिया में
धंसती हुई गोली की आवाज़ सुनकर
फूलदान में पानी डाल रही है लड़की
नींद से ढकी हुई दुनिया में
मोजे उतारकर
नंगे पैरों की चमक देखकर
छाती के बटन
ठीक से लगा रही है लड़की
नींद से ढकी हुई दुनिया में
खिड़की से बना
एक पुल
नदी से मिले हुए जंगल में
उतरता है
जिसे कल के लिए
पत्तों से ढककर छिपा रही है लड़की ।
प्रेमप्रसंग
ज्यों ही उन पुरानी यादगारों से
एक बड़ा-सा पेपरवेट बनाना चाहता हूँ
त्यों ही वह बनकर
दूर एक स्निग्ध मेज पर चला जाता है
जहाँ मेरे और तुम्हारे हाथ
एक अविस्मरणीय मृदुता में
साँपो की तरह गुँथे पड़े हैं
(उन्हें इस भारी पेपरवेट से
दबाना नहीं चाहता)
फिर ज्यों ही
उन पुरानी यादगारों से
एक बहुत बड़ा हथियार बनाना चाहता हूँ
त्यों ही
वह बनकर आकाश में तन जाता है
जहाँ हमारी
पुराने उद्देश्यों में चमकती
--गरदनें हैं
जिनमें अगर आज भी
एक घूँट समय डाल दिया जाय
तो ख़ून
नसों में दौड़ता दिखायी देगा
(मगर चालू अँधेरे को
दो आँखों देने से पहले
उन्हें काटना नहीं चाहता)
फिर भी ज्यों ही उन पुरानी यादगारों से
ज़िन्दगी के बारे में
एक प्रस्ताव बनाना चाहता हूँ
त्यों ही सारे शब्द
वर्णमाला की मूल सदस्यता से
त्यागपत्र देकर
विरोध में उठ खड़े होते हैं
(लेकिन मैं पहले ही झटक में
उनका क्रोध
निलम्बित नहीं करना चाहता)
तब सोचता हूँ
उन पुरानी यादगारों के बीच
जो एक चिनगारी है
उसी से सबके इरादे प्रज्वलित करूँ
बस इतनी ही में
हरे वनखण्डों से
धुआँ उठने लगता है
(इतनी जल्दी हरियाली को
आग और आँसू के सुपुर्द करना
ठीक होगा ?)
सोचते-सोचते
अन्त में कुछ नहीं बना पाता हूँ
न वे पुराने हाथ
न चमकतो हुई ऊष्ण गरदनें
न कोई झलझलाता हुआ प्रस्ताव
न कोई अग्निपुंज
हमारी कई चीज़ों को
ऐतिहासिक कीचड़ के साथ
बहा ले जाती
अथाह काली बाढ़
मेरी पीठ को
लगातार किनारा बनाकर काटती
अब कन्धे और सिर को डूबोना चाहता है
ऐसे मौके पर जो पैरों के नीचे है
इस ज़मीन को चाहता हूँ
कि थोड़ा और ऊपर उठा लूँ
ताकि शिकंजों में फँसी
हमारी गरदनें
हमारे सिर और कन्धे
अपनी उपस्थिति को
आनेवाले दिनों की रोशनी में
प्रसंगवश चमका सकें
और जो भी देखे अपनी यादगारों से
उसे पेपरवेट बनाना पड़े
न कल्पित हथियार
वल्कि विरोध में उठे हुए शब्दों को
वह एक ऐसे वाक्य को दे दे
जो हरी घास पर
भरी बन्दूक की तरह रखा हुआ हो ।