इन्तज़ार की जगह
आज के संगीत की सीढियाँ
आकाश में
कल के पत्तों से ढक दी हैं
इनसे होकर उतरना
मैं यहाँ हूँ
सैकड़ों वर्ष पुराने संगीत की
चट्टान पर
ताज़ा खोदी हुई
मिट्टी की गन्ध से भरी
आस-पास मेरी वर्तमान पृथ्वी है
कोख का
सारा कोयला दहकाये हुए ।
कल के लिए
नींद से ढकी दुनिया में
धंसती हुई गोली की आवाज़ सुनकर
फूलदान में पानी डाल रही है लड़की
नींद से ढकी हुई दुनिया में
मोजे उतारकर
नंगे पैरों की चमक देखकर
छाती के बटन
ठीक से लगा रही है लड़की
नींद से ढकी हुई दुनिया में
खिड़की से बना
एक पुल
नदी से मिले हुए जंगल में
उतरता है
जिसे कल के लिए
पत्तों से ढककर छिपा रही है लड़की ।
प्रेमप्रसंग
ज्यों ही उन पुरानी यादगारों से
एक बड़ा-सा पेपरवेट बनाना चाहता हूँ
त्यों ही वह बनकर
दूर एक स्निग्ध मेज पर चला जाता है
जहाँ मेरे और तुम्हारे हाथ
एक अविस्मरणीय मृदुता में
साँपो की तरह गुँथे पड़े हैं
(उन्हें इस भारी पेपरवेट से
दबाना नहीं चाहता)
फिर ज्यों ही
उन पुरानी यादगारों से
एक बहुत बड़ा हथियार बनाना चाहता हूँ
त्यों ही
वह बनकर आकाश में तन जाता है
जहाँ हमारी
पुराने उद्देश्यों में चमकती
--गरदनें हैं
जिनमें अगर आज भी
एक घूँट समय डाल दिया जाय
तो ख़ून
नसों में दौड़ता दिखायी देगा
(मगर चालू अँधेरे को
दो आँखों देने से पहले
उन्हें काटना नहीं चाहता)
फिर भी ज्यों ही उन पुरानी यादगारों से
ज़िन्दगी के बारे में
एक प्रस्ताव बनाना चाहता हूँ
त्यों ही सारे शब्द
वर्णमाला की मूल सदस्यता से
त्यागपत्र देकर
विरोध में उठ खड़े होते हैं
(लेकिन मैं पहले ही झटक में
उनका क्रोध
निलम्बित नहीं करना चाहता)
तब सोचता हूँ
उन पुरानी यादगारों के बीच
जो एक चिनगारी है
उसी से सबके इरादे प्रज्वलित करूँ
बस इतनी ही में
हरे वनखण्डों से
धुआँ उठने लगता है
(इतनी जल्दी हरियाली को
आग और आँसू के सुपुर्द करना
ठीक होगा ?)
सोचते-सोचते
अन्त में कुछ नहीं बना पाता हूँ
न वे पुराने हाथ
न चमकतो हुई ऊष्ण गरदनें
न कोई झलझलाता हुआ प्रस्ताव
न कोई अग्निपुंज
हमारी कई चीज़ों को
ऐतिहासिक कीचड़ के साथ
बहा ले जाती
अथाह काली बाढ़
मेरी पीठ को
लगातार किनारा बनाकर काटती
अब कन्धे और सिर को डूबोना चाहता है
ऐसे मौके पर जो पैरों के नीचे है
इस ज़मीन को चाहता हूँ
कि थोड़ा और ऊपर उठा लूँ
ताकि शिकंजों में फँसी
हमारी गरदनें
हमारे सिर और कन्धे
अपनी उपस्थिति को
आनेवाले दिनों की रोशनी में
प्रसंगवश चमका सकें
और जो भी देखे अपनी यादगारों से
उसे पेपरवेट बनाना पड़े
न कल्पित हथियार
वल्कि विरोध में उठे हुए शब्दों को
वह एक ऐसे वाक्य को दे दे
जो हरी घास पर
भरी बन्दूक की तरह रखा हुआ हो ।
Se Bachi Hui Prithvi Par
Leeladhar Jagoori
As a whole, this volume was a challenge because it contains poems of many different types: for example, lyrics, protest poems, and several long narrative poems. Each of these varieties of poem has a different intention and vocabulary associated with it. Lyrics can have hermetic qualities that reflect each poet’s imagination and sensibility, while long narrative poems have historical and sociocultural contexts. I’ve tried to capture both as best as possible. In another way, the challenge lay in not forcing the poems to conform to the typologies that I had in mind. Some of the poems are exactly like I wanted them to be: antiauthoritarian statements from 1970s India that can resonate in the United States of 2024.. Others might pass as ecopoetry, which is something that interests me. Yet, by stating that these poems are those types of poems, I risk creating reading expectations in myself that veer toward implicitly contemporary Anglophone standards. Of course, Leeladhar’s poems are conditioned by the world they come from, and from that world’s political, social, and aesthetic histories. And so, there’s always something a little different from what I/you expect. A trace of difference. To my mind, that’s how translation fosters intellectual growth—by offering something that is never wholly reducible to the receiving culture’s expectations. But this is also what I, as a translator, have to make sure to respect: that difference immanent in the poems themselves.
Leeladhar Jagoori (b. 1940) is one of the leading Hindi poets in India. For his poetry, he has won the top literary and cultural awards in India, including the Sahitya Akademi Hindi Prize (1997); the Padma Shri, a lifetime achievement award (2004); and the KK Birla Foundation’s Vyas Samman (2018), which honors excellence in the arts. He lives in Dehradun, Uttarakhand.
Matt Reeck is a Guggenheim Fellow in translation. His translation What of the Earth Was Saved from the Hindi of Leeladhar Jagoori is forthcoming from World Poetry Books (2024). He lives in Brooklyn with his family.