गोलकुण्डा की एक शाम

कुँवर नारायण

1

. . . और ये बन्दोबस्त
ये नज़रिये
कहाँ-कहाँ से इकट्‌ठे हुए हौसले
कहाँ-कहाँ से इकट्‌ठे हुए शाही हुजूम
इन चढ़ाइयों
इन ढलानों पर
थरथराते घुटनों पर खड़ी ईमारतें लुढ़कने-लुढ़कने को
बिना छत के कमरों दालानों में
मुश्किल से फ़र्क़ कर पातीं दीवारें
बहुत लम्बी बहुत मज़बूत चट्टानों में
उक़ाबी जांबाज़ों के उजाड़ घोसले
और वो दिलेर उड़ानें . . .

इन बेतरतीब पंक्तियों को
किस तरकीब में सजायें कि ‘शाबाश’ गूंजे
पताकाओं की तरह लहराते शब्दों में –
कम वीरान लगें
वीराने?
 

2

थककर बैठ गया हूँ जिस जगह
ठीक इसी जगह एक शाही क़ैदी ने फ़ैसला किया था
कि क़ायम रहेंगी पत्थरों पर खरोंची हुई ये नक़्काशियां
मेरी बेगुनाही का सबूत ये प्रार्थनाएँ . . .
मैं फिर आऊँगा फ़ैसला सुनाने इन अर्ज़ियों पर।

यहीं कहीं अगर खोदा जाय
तो मिल सकती है किसी तावीज़ पर खुदी हुई एक तारीख़
जब पैदा हुआ होगा एक ख़ुशनसीब बादशाह
जब बड़ा हुआ होगा अपने साम्राज्य से भी बड़ा एक बादशाह
जब दुनिया को जीतने निकला होगा एक बादशाह
जब अपने और अपनों से हार गया होगा एक बादशाह . . .
जब घिरते हुए अँधेरों के ख़िलाफ़
एक ख़ुद्दार कुत्बशाही ने सिर उठाए रखा,
जब विश्वासघात के मलबे में डूबा एक पूरा साम्राज्य
मोतियों की एक शाही माला की तरह उठाकर
अबुलहसन ने डाल दिया होगा आज़मशाह के गले में . . .
जब इस शाही लाशघर से नहा धोकर
आख़िरी बार निकला होगा एक शाही जनाज़ा . . . 

 
3

मुझे सोने दो अभी नज़दीक की आवाज़ों,
मुझमें शोर करो अभी दूर की ख़ामोशियों,
कोई साँस ले रहा है अभी मेरे फेंफड़ों में।
इन बन्दूकों कटारों पर कसी हुई मुट्‌ठियाँ,
ये कमरबन्द : कोने खदरों में चमगादड़ों की तरह लटके साये :
क़िलों की दीवारों पर गोह की तरह चढ़ती फफूँद :
साजिश के चेहरों से नक़ाब उतारते ख़ूनी हाथ :
मौत की रहमदिल घाटी में उतरती एक ठण्डी शाम।

 
4

‘अंधेरा होने से पहले घर लौटना है,’
वह बेहतर जानता है सैलानियों की ज़रूरतों को
जो टैक्सी चलाता,
जो रोज़ उन्हें खण्डहर दिखाकर घर पहुँचाता,
जिसकी कोई वाबस्तगी नहीं
पर्यटकों या खण्डहरों से : उसके लिए वक़्त
वह वक़्त है जो मीटर की रफ़्तार से
नग़द गुज़र रहा।

टैक्सी ड्राइवर रहमतअलीशाह
या गाइड मत्सराज के पूर्वजों के युद्धों से
कहीं ज़्यादा कठिन है
वर्तमान से उन दोनों की लड़ाई,
उससे पराजित न होने के उनके मन्सूबे . . .

बारूद में आग लगाने के इतिहासों से अलग
एक तीसरा इतिहास भी है
रहमतशाह की बीड़ियों और
मत्सराज की माचिस के बीच सुलहों का।